हिंदी कविता - ऋण

उन्नीस वर्ष सजा दिए आज आलमारी पर,
और बीस को है फिर शर्तों पर उधार लिया;
उडती निगाह जो डाली मैंने पुरानो पर,
बस लगा कि केवल सबको बेकार किया.

फिर खाई है झूठी कसम ईश्वर के सामने,
कि झटक सकूं उनकी झोली से एक और वर्ष;
क्या वह अनभिज्ञ है कि फिर बख्शा एक और वर्ष श्याम ने,
और फिर मेरे पापों के बीच मुझे दिया हर्ष.

हर वर्ष यही होता है - हम झूठे वायदे करते हैं,
बकाया वायदों का हुजूम रहता है सामने;
इसलिए अंत में तड़प-तड़प कर मरते हैं,
पापों का मजमून फिर भी सामने रहता है.

ऊपर वाला कितना दयालु महाजन है,
देता है भरपूर समय ऋण उतारने का;
और हम सब जो 'महासज्जन' हैं -
लेते हैं भरपूर समय जीवन बिगड़ने का.

ऋण में पाई हुई ज़िन्दगी का सदुपयोग करें,
भर लें इसमें मधुर-मधुर मुस्कान,
रह कर यहाँ बस सभी से सहयोग करें,
पलक में हो जायेगा जीवन देवों समान.

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[जो समय 'कर दिखाने' का हो उसे अगर 'लिख कर दिखाने' में व्यतीत कर दिया जाये तो क्या समझें? ऐसा ही कुछ हुआ एक जन्मदिन पर.
जन्मदिन आता तो हर साल है पर हम उसे ऐसे मनाते हैं जैसे कि वो आखिरी हो. 
आखिरी हो भी तो क्या? ऐसा क्या महत्वपूर्ण है हमारा जन्म? 
और फिर ऋण किसका और किस बात का?]

1 comment:

  1. munish sharma munishontop@gmail.com
    through hindi_sabha_japan@
    बहुत ही व्यक्तिगत अभिव्यक्ति है लेकिन इसमें समाई सच्चाई इसे सार्वभौमिक बनाए देती है ।


    --मुनीश

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