कविता / Poem : साल दर साल
    (2014, बंगलोर, भारत)
ओस की बूंद ज्यों घास पर उग आती है
हर सुबह ज्यों कानों में चहचहाती है...
भोर की ठंडी गर्माहट यूं दिल टटोल जाती है
सूर्य किरण ज्यों बादलों से भी दिन छान लाती है
पंद्रह जाड़ों में मेरे तुमने यूँ गर्मियां मिलाई हैं



दिन चढता, बढता, बनता, ढल जाता है
शाम संगीन, रंगीन, हसीन, बढ जाती है
रात स्याह, चाह, विवाह में सिमट जाती है
भोर फिर प्यार को पूजा में बदल देता है
तेरह वसंतो में मेरे तुमने यूँ गीत गाये हैं



नीले आकाश में जैसे सजता पीला सूरज
नील गगन में वैसे ही सर्द चांद जड़ता है
बादल आसमान के नग बन फिरते इतराते
उडती चिड़िया ज्यूं आंखों को भाती है
तेरह होलियो में मेरे तुमने यूँ
दीवालियाँ मिलाई हैं



उन तारों का कहना ही क्या जो
उन दूरियों को दर्शनीय दिखलाते हैं
पर प्रकाश की किरन वह कृपा है
जो हीरों, तारों को, मन में सजाती है
दसियों साल तुमने मेरे प्रकाश छांटे हैं

                            - सीतेश श्रीवास्तव
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कविता / Poem
 
जीवन का उत्तरार्ध और दक्षिणी गोलार्ध
        (जनवरी 2015, जोहानसबर्ग, साउथ अफ्रीका)
 
जीवन का उत्तरार्ध और दक्षिणी गोलार्ध 
जुड़ाव है समन्दरों का ज़मीनों का 
हवा की कड़ी जुडी  बहती सभी धराओं पर 
चाँद सूरज सबके बराबर के हिस्से हैं 
ह्रदय को दूरी फिर क्यूँ कचोटती है 
दिल दहलीज़ फिर फिर क्यूँ देखता है 

जीवन का उत्तरार्ध और दक्षिणी गोलार्ध

दक्षिण से उत्तर निगाह तक नहीं जाती 
उत्तर से उत्तर  क्या कर आ पायेगा ?
पश्चिम से पूरब सोच भी डगमगाती 
पूरब से पूर्वा क्या बह आ पाएगी ?
ह्रदय की पहुँच को आँखों का वास्ता 
पैरों की बेड़ी पर फिर यादों को रास्ता 

जीवन का उत्तरार्ध और दक्षिणी गोलार्ध


बादल मिलते मिलते से लगते हैं
हवा जब नाराज़ हो हो बहती है 
चाँद चेहरे की रंगत पढ़ लेता है 
झनक पटक वर्षा फिर मान जाती है 
खेल जब होता यही  हर  कहीं
मेल नहीं होता क्यूँ कहीं कहीं 

जीवन का उत्तरार्ध और दक्षिणी गोलार्ध

                  -  सीतेश श्रीवास्तव 

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