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हिंदी कविता - अंततः

अंततः

अंततः यही तो होना है,
सुन्दर पहनना और अच्छा खाना,
दुनिया के रंग में रंगते जाना
अंत में चिता ही बिछोना है.

और हाय यही विडंबना है,
वह किसी का अपना है और,
किसी का वह सजना है
किसी का वह जन्मा है
उसका भी एक सपना है
फिर भी यही विडंबना है
अंततः चिता ही बिछोना है.

अरे लाश..कुछ तो मुख खोल,
अब जरा सुनु गर्व भरे बोल,
अब दिखा हेकड़ी, जमा अब गोल,
हो गया तेरा भी मोल-तोल,
और हाँ यही विडंबना है,
अंततः चिता ही बिछोना है.

कल बड़ा चहकता था तू,
आती होगी बस तुझमे बू,
और अब तेरी विडंबना है,
अंततः चिता ही बिछोना है.

कल तक तूने बहुत कमाया,
तन पर आज कपडा ना जुराया,
आँखें खुली या है पथराया-
मौत सी सीना तान ना पाया,
समझा? तेरी यही विडंबना है,
अंततः चिता ही बिछोना है -
अंततः चिता ही बिछोना है.

संवत १९९० में अयोध्या के सरयू नदी के घाट पर ठिठुरती जाड़े की रात में जलती किसी लाश के किनारे बैठ कर कुछ सच देखे थे, कुछ गर्माहट पायी थी. कलम ने उन  राख के कुछ टुकड़ों को कागज़ पर ढलवाए थे.

हिंदी कविता - "..................."

"............................................................."

[वर्ष: १९९६]

भोर के धुंधलके में
पानी भरे बादलों के नीचे
हरे भरे खेतों के बीच से
मेरी आँखें दूर दूर तक
नयनों की सीमाओं तक दौड़ रही हैं
तुम कहीं नहीं हो और
यहीं कहीं हो
यही मेरी विवशता है
मेरी बेचैनी है.

बरसात का असर दिख रहा है
क्यारिओं बागों में दिलों पर
मैं अकेला चकोर
तुम्हें सूनेपन में आवाज़ देता हूँ
तुम नहीं सुनती, बस
हवाओं में तुम्हारी धड़कन
सुनाई देती है मुझे

तुम्हारी महक मेरे संसार में सर्वश्रेष्ठ है
काले जामुनी मेघ बिखर जाने को बेताब
बिलकुल मेरे समान जैसे मैं सदा तुम्हें
अपनी बाहों में भर, तुम पर न्योछावर
हो जाना चाहता हूँ,
अपनी आत्मा के साथ.
.............................................................................................................
मुझे नाम दे दो.....
मध्यमवर्गीय सोच पीछा नहीं छोडती मध्यमवर्गीय लोगों का जीवन भर. १९९६ का वह साल करियर के लिहाज से अच्छा ही था पर मालूम ही नहीं था की एन्त्रेप्रेंयूर्शिप क्या चिड़िया होती है. धंधा, बिजनेस, कारोबार, व्यापर, जैसे कुछ शब्द होते थे तब जो कि उस समय के उत्तर प्रदेश में मध्यमवर्गीय लोगों के लिए डरावने रास्ते होते थे. सिर्फ नौकरी और उसमे भी सरकारी, की पूछ होती थी. कुछ साल पहले ही मेरी ज़िन्दगी ने बड़ी करवट बदली थी और आने वाला साल एक और करवट बदलने का इंतज़ार कर रहा था. यह कविता किसी यात्रा के दौरान लिखी गई थी पर आश्चर्य होता है कि इसका शीर्षक क्यों नहीं रखा मैंने उस समय...
इस कविता को नाम की जरूरत है. क्या आप मेरी मदद कर सकते हैं इस कविता का नाम चुनने में..?

English Poem - WHY

WHY
........

I longed for life-
and lost the sense of belonging;
You came!

I longed for death-
and shed the fear of dying;
You forgot !

I longed for someone-
and made everybody of vying;
To hurt !

I longed for normalcy-
and ruined my peace, leaving
Me void !

I longed for struggle-
and it came before my coming;
To punch !

I longed for family-
and they kept coming-departing;
Playing see-saw !

I longed for spring-
and it left me wanting;
Not anymore!

I long for detachment-
and life leaves me wondering;
Attaching me !!

xxxxxxxxxxxxx***xxxxxxxxxxxxxx
[written during early 2000. though moving every day, life was standstill as if somewhere down under an anchor had stuck in the seabed. this poem made its way to an online poetry contest then and I knew somewhere someone recognized and resounded with same thoughts. reproducing it here as its relevance has bounced back]

हिंदी कविता - एक नौसिखिये की पहल

साल १९८८
सोविएत रूस ने पेरेस्त्रोइका, यानि वित्तीय पुनर्गठन / वित्तीय नवीनीकरण लागू कर दिया था। किसे पता था कि ये उनके देश का ही पुनर्गठन / नवीनीकरण कर बैठेगा। रूस के भूमंडल के नीचे भारत में करिश्माई युवा प्रधानमंत्री राजीव गाँधी अपने जीवन कि निर्णायक लड़ाई लड़ रहे थे - बोफोर्स काण्ड; जो कि उस समय तक हिंदुस्तान का सबसे बड़ा भ्रस्ताचार समाचार था। आज के सन्दर्भ में तो वो टुच्चा सा है।

मैं कहीं अपनी सोच को भ्रांतिमान कर रहा था। आगे आने वाली चुनौतियों से आधा बेखबर रहकर असामान्य पेशों के सपने देखता हुआ मैं भटक रहा था कि कहीं अंतर्मन कि सुनसान और ठिठुरने वाली निर्वात खालीपन में ताल और लय कहीं मिल गए। इस तरह उनके मिलन से मेरी प्रारंभिक कवितायेँ जन्मी। मैंने कागज़-कलम को भींचकर पकड़ा और उड़ेल दिया पन्नों पर। आपतक अब पंहुचा रहा हूँ और उम्मीद करता हूँ कि आपकी आलोचना, समालोचना और समीक्षा मिलेगी।



:एक नौसिखिये की पहल:



काव्य करने बैठ गया हूँ
हिम्मत धर के पैठ गया हूँ
जोश में घुस बैठ गया हूँ
पर उफ़ !
कलम की नोंक , हाशिए के बगल में ,
घंटे भर से रुकी है
शब्दों के लिए दुखी है
आह !! मन मेरा हाथ के दबाव में है ,
भावनाओ के बहाव में है ,
ओह !! मस्तिष्क विषय में लीन है ,
काँट- छाँट में तल्लीन है
अरे शब्द जैसे लुट गए है
ज्ञान के घड़े टूट गए है
कुछ भी नहीं सूझ रहा है,
मस्तिष्क व्यर्थ ही झूझ रहा है
अच्छा, सपनो में उतनी जान नहीं है
काव्य करना आसन नहीं है
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