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हिंदी कविता - "..................."

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[वर्ष: १९९६]

भोर के धुंधलके में
पानी भरे बादलों के नीचे
हरे भरे खेतों के बीच से
मेरी आँखें दूर दूर तक
नयनों की सीमाओं तक दौड़ रही हैं
तुम कहीं नहीं हो और
यहीं कहीं हो
यही मेरी विवशता है
मेरी बेचैनी है.

बरसात का असर दिख रहा है
क्यारिओं बागों में दिलों पर
मैं अकेला चकोर
तुम्हें सूनेपन में आवाज़ देता हूँ
तुम नहीं सुनती, बस
हवाओं में तुम्हारी धड़कन
सुनाई देती है मुझे

तुम्हारी महक मेरे संसार में सर्वश्रेष्ठ है
काले जामुनी मेघ बिखर जाने को बेताब
बिलकुल मेरे समान जैसे मैं सदा तुम्हें
अपनी बाहों में भर, तुम पर न्योछावर
हो जाना चाहता हूँ,
अपनी आत्मा के साथ.
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मुझे नाम दे दो.....
मध्यमवर्गीय सोच पीछा नहीं छोडती मध्यमवर्गीय लोगों का जीवन भर. १९९६ का वह साल करियर के लिहाज से अच्छा ही था पर मालूम ही नहीं था की एन्त्रेप्रेंयूर्शिप क्या चिड़िया होती है. धंधा, बिजनेस, कारोबार, व्यापर, जैसे कुछ शब्द होते थे तब जो कि उस समय के उत्तर प्रदेश में मध्यमवर्गीय लोगों के लिए डरावने रास्ते होते थे. सिर्फ नौकरी और उसमे भी सरकारी, की पूछ होती थी. कुछ साल पहले ही मेरी ज़िन्दगी ने बड़ी करवट बदली थी और आने वाला साल एक और करवट बदलने का इंतज़ार कर रहा था. यह कविता किसी यात्रा के दौरान लिखी गई थी पर आश्चर्य होता है कि इसका शीर्षक क्यों नहीं रखा मैंने उस समय...
इस कविता को नाम की जरूरत है. क्या आप मेरी मदद कर सकते हैं इस कविता का नाम चुनने में..?