कविता / Poem : साल दर साल
    (2014, बंगलोर, भारत)
ओस की बूंद ज्यों घास पर उग आती है
हर सुबह ज्यों कानों में चहचहाती है...
भोर की ठंडी गर्माहट यूं दिल टटोल जाती है
सूर्य किरण ज्यों बादलों से भी दिन छान लाती है
पंद्रह जाड़ों में मेरे तुमने यूँ गर्मियां मिलाई हैं



दिन चढता, बढता, बनता, ढल जाता है
शाम संगीन, रंगीन, हसीन, बढ जाती है
रात स्याह, चाह, विवाह में सिमट जाती है
भोर फिर प्यार को पूजा में बदल देता है
तेरह वसंतो में मेरे तुमने यूँ गीत गाये हैं



नीले आकाश में जैसे सजता पीला सूरज
नील गगन में वैसे ही सर्द चांद जड़ता है
बादल आसमान के नग बन फिरते इतराते
उडती चिड़िया ज्यूं आंखों को भाती है
तेरह होलियो में मेरे तुमने यूँ
दीवालियाँ मिलाई हैं



उन तारों का कहना ही क्या जो
उन दूरियों को दर्शनीय दिखलाते हैं
पर प्रकाश की किरन वह कृपा है
जो हीरों, तारों को, मन में सजाती है
दसियों साल तुमने मेरे प्रकाश छांटे हैं

                            - सीतेश श्रीवास्तव
प्रतिलिप्याधिकार © / प्रकाशनाधिकार © / copyright ©

No comments:

Post a Comment