हिंदी कविता - अंततः

अंततः

अंततः यही तो होना है,
सुन्दर पहनना और अच्छा खाना,
दुनिया के रंग में रंगते जाना
अंत में चिता ही बिछोना है.

और हाय यही विडंबना है,
वह किसी का अपना है और,
किसी का वह सजना है
किसी का वह जन्मा है
उसका भी एक सपना है
फिर भी यही विडंबना है
अंततः चिता ही बिछोना है.

अरे लाश..कुछ तो मुख खोल,
अब जरा सुनु गर्व भरे बोल,
अब दिखा हेकड़ी, जमा अब गोल,
हो गया तेरा भी मोल-तोल,
और हाँ यही विडंबना है,
अंततः चिता ही बिछोना है.

कल बड़ा चहकता था तू,
आती होगी बस तुझमे बू,
और अब तेरी विडंबना है,
अंततः चिता ही बिछोना है.

कल तक तूने बहुत कमाया,
तन पर आज कपडा ना जुराया,
आँखें खुली या है पथराया-
मौत सी सीना तान ना पाया,
समझा? तेरी यही विडंबना है,
अंततः चिता ही बिछोना है -
अंततः चिता ही बिछोना है.

संवत १९९० में अयोध्या के सरयू नदी के घाट पर ठिठुरती जाड़े की रात में जलती किसी लाश के किनारे बैठ कर कुछ सच देखे थे, कुछ गर्माहट पायी थी. कलम ने उन  राख के कुछ टुकड़ों को कागज़ पर ढलवाए थे.

4 comments:

  1. काश सभी इस शाश्वत सत्य को समझ पाते।

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    1. सीतेशTuesday, May 08, 2012

      वो सुबह कभी तो आएगी...

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  2. कहते हैं उस जगह जाकर सभी के मन में क्षणिक वैराग्य पैदा होता है जिसे श्मशान-वैराग्य कहते हैं । ये भी कहते हैं कि यदि ये बैराग मन में बाद में भी बना रहे तो आदमी योगी हो जाता है ।

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    1. सीतेशTuesday, May 08, 2012

      वैराग्य क्या सिर्फ 'हिन्दू सोच' है?
      और अगर नहीं, तो फिर तो शोध का विषय है.
      धन्यवाद मुनीश जी 'क्षणिक वैराग्य' के प्रति रुझान जागृत करने के लिए.

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