हिंदी कहानी - वह दिन


वह दिन

सुबह के सात बजे होंगे. मैं अपनी पुस्तकों की मंत्रिपरिषद के समक्ष अपनी काबिलियत के प्रदर्शन में प्रयासरत था कि शायद कुछ हासिल हो जाये पर यह मंत्रिपरिषद हमारे 'भारत गणराज्य' के मंत्रिपरिषद की ही तरह मुझे घास नहीं डाल रही थी. तभी दरवाजे पर दो जोड़े दस्तक मेरे कर्णो में ख़ुशी बनकर समा गए, क्योंकि अब पढाई से छुट्टी मिलने वाली थी. भौंहों पर कोई शिकन नहीं आई क्योंकि सुबह का समय था. कलम को खुले हुए ही कॉपी पर छोड़कर उठ गया, इसलिए कि मेहमान के सामने ही किताबें बंद करूँगा ताकि वे और ये सब ये समझें कि मजबूरी है. लपकते हुए द्वार खोला और पलक झपकते हुए उन्हें देखा. उनकी एक इंच कि मुस्कान ने मेरी मुस्कान कि लम्बाई और भी बढ़ा दी. मेरे अगवानी करने से पहले वह सोफे पर धंस चुके थे.
दरवाजा बंद किया और किताबों में पेन डालकर उनको भी बंद किया. तब तक बातों का सिलसिला बढ़ रहा था. इसी बीच में रसोई विभाग को 'कुछ भी' का आदेश दे आया था. हम गुफ्तगू में मशगूल थे. हमने बातों ही बातों में राजनीति, दर्शन, अपराध और विमर्शन सब पर अपने अपने राय थोपे. बुश, मिखाइल, मार्गरेट और देश कि नीतियों को तार तार कर दिया हमने. वह हमारे तर्कों के आगे बौने लग रहे थे और हम फूलते ही जा रहे थे कि अचानक...
अचानक मेज पर दो गिलास नीम्बू के शरबत और उन गिलासों के पावों से लगी दासी प्लेट जिसमे थे दो बिस्कूट, नज़र किये गए. उनके रखने कि बेतरतीबी से साफ़ था कि रसोई विभाग कुपित है. कोई बात नहीं, हम युवाओ के मित्रों के साथ ऐसा ही होता है. बड़े बूढों के मित्र आयें तो देखिये आलम. मेजपोश पर कड़क चाय और वगैरह वगैरह सज जायेंगे जबकि बड़े बूढ़े 'फोर्मेल्टी वश ' थोडा ही खायेंगे. खैर हमारा भी समय आएगा. हमने गिलास का फीका द्रव 'ढकोचा' और बिस्कूटों पर रहम कर उन्हें 'मेहराने' के लिए छोड़ दिया (वैसे उन्होंने अपना हाथ बढाया जरूर था). गिलासों के दौर के बाद वे यूँ करबद्ध हो उठे कि हमें लगा कि सिर्फ कुछ 'ढकेलने' के लिए आये थे. मुझे लगा बुरा और मैंने सभ्यता से उन्हें सोफे पर लिया गिरा ताकि वे समझ ना पायें. वे बैठ तो गए, पर इस आशा से कि गर्मी के दिन हैं सो कुछ देर बाद फिर कुछ पेश होगा. अब मैं कुछ गंभीर मिजाज़ में आ गया था सो उनके मुस्कियों का प्रभाव ना पड़ा. उन्होंने बातों के दौरान ही पूछा, 'आपका वह कौन सा दिन था जब आप महत्वपूर्ण या महत्वहीन थे?' मैंने कुछ क्षण सोचा और उन्हें 'वह दिन' कि महिमा समझाने लगा.
परिभाषानुसार 'वह दिन' वह दिन होता है जो आपकी ज़िन्दगी के अनलिखे इतिहास का एक अनुच्छेद बन जाये या बन गया हो. 'वह दिन' दो प्रकार का होता है, (अ) वह दिन जब आप खुश हुए हों, (ब) वह दिन जब आप दुखी हुए हों. इन दो मुख्य भेदों के अनेक उपभेद हैं. मसलन वह दिन जब आपने किसी को पीटा हो (चाहे प्रत्यक्ष या परोक्ष). या फिर वह दिन जब आपकी शादी हुई हो (पता नहीं कि शादी ही है या आप भी औरों कि भांति सिर्फ 'फंस' गए हैं). तो मै आपको बता रहा था कि 'वह दिन' कि महिमा अपरम्पार है. 
मेरा 'वह दिन' था जब मेरा जन्म हुआ था. अन्यों कि भांति हमने भी ख्वाब देखे थे कि हम होंगे निराले और निहायत शरीफ. पर इस कलियुग की मिलावट में शरीफों के बारे में सोचना भी पाप है क्यूंकि शरीफों को 'शरीफों' कि भांति खा लिया जाता है. दूसरा 'वह दिन' वह दिन था जब हमने स्कूल में दाखिला लिया, सोचा कि रोम्यां रोलां या सुकरात या फिर अरस्तु तो बनना ही है. पर कुछ ही दिनों  में ख़ुशी काफूर हो गयी और हम बिना पेंदी के लोटा ही रह गए. तीसरा 'वह दिन'  वह दिन था जब हम हाई स्कूल में अव्वल आये. चौथा 'वह दिन' वह दिन था जब हम 'इंटर महान' में अव्वल आये, पांचवा 'वह दिन' वह दिन होगा जब हम 'फलाना' करेंगे, क्षठवा 'वह दिन' वह दिन होगा जब हम 'ढेकानो' पर अपना रौब जमायेंगे, सातवां 'वह दिन' वह दिन होगा जब...आठवां 'वह दिन' वह दिन होगा जब...नवां 'वह दिन' जब.....मैं शेष विश्व से कट कर अपनी ही धुन में धारा प्रवाहमयी धारा में गिरता पड़ता चला जा रहा था और मेरी आँखें टंग चुकी थी कि कमरा हिल उठा.
"तेरा एक 'वह दिन' वह दिन भी होगा पुत्र जब तू संसार की निस्सारता को छोड़ कर नए वस्त्र पहनने चला जायेगा और तेरे 'वह दिन' सारे अगले जीवन में चले जायेंगे; रुकेंगे नहीं. अतः पागलपन छोड़ और कर्म कर कर्म".
मैं अवाक् था. बिना सर उठाये कमरे का मुआयना किया. वे नदारद थे और दीवारें सवाक हो गयीं थीं. यह असमंजस की स्तिथि कब तक रही पता नहीं, पर मैं आज तक इस घटना से अवाक् हूँ. यह चिरंतन सत्य, यह वेद वाक्य इस प्रकार मेरे सामने प्रस्तुत किया जायेगा, यह मैंने नहीं सोचा था.
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[यह रचना १९९५  में एक गुलाबचंद त्रिपाठी फाउन्डेसन द्वारा 'शुभाशंषा सम्मान" से पुरस्कृत और स्थानीय दूरदर्शन केंद्र से प्रसारित की गयी थी. उस उम्र में मन की आग जो भी उगलती थी, उसमे एक धुन होती थी. आज जो मन में आग है उसमे घुन लग गया है...]  

5 comments:

  1. now no need for word verification...yuhu

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  2. Rising in love with this blog writer again....

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  3. great writing, sitesh! Aaj ki aag ko ghun mat lagne do. likhna jaari rakho

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    1. Sure Pankaj.. trying to revive. Thanks so much.

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  4. munish sharma via hindi_sabha_japan@

    शानदार रचना है और आपकी आग में घी डलता रहे यही कामना है । बल्ॉग से वर्ड
    वेरिफ़िकेशन नामक जंजाल को दूर करें तो टिप्पणी संभव होगी ।

    --मुनीश

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